Wednesday, March 24, 2021

भेद

समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की हाय
क्या रस मैंने पाया
जब भी देखा री तुझको मैंने
मुक्त किया मैंने अपना मन
कुछ आवर्धन कुछ संवर्धन
साथ हुआ तन मेरा मुरझाया
समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की  हाय
क्या रस मैंने पाया

हलके हलके जो तू बैठी
हलके हलके यो मैं बैठा
हलकी सी जो तू बोली
हलके होके मैं भी बोला
हलकी मन जो तू मुस्काई
ज्यादा होकर मैं मुस्काया
समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की  हाय
क्या रस मैंने पाया

जो सोचे कुछ चली चली तू
भाग मेरे कुछ चली चली यू
मैं न रोका तू न रूकती
तू न रोकी मैं न रुकता
ले मुस्कराहट होठो पे
तुने ज्योति जीवन भरमाया
समझ न पाया तुझेेमें मुझमें
कैसा भेद ।।

नृपेन्द्र नीर

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