Wednesday, March 24, 2021

भेद

समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की हाय
क्या रस मैंने पाया
जब भी देखा री तुझको मैंने
मुक्त किया मैंने अपना मन
कुछ आवर्धन कुछ संवर्धन
साथ हुआ तन मेरा मुरझाया
समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की  हाय
क्या रस मैंने पाया

हलके हलके जो तू बैठी
हलके हलके यो मैं बैठा
हलकी सी जो तू बोली
हलके होके मैं भी बोला
हलकी मन जो तू मुस्काई
ज्यादा होकर मैं मुस्काया
समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की  हाय
क्या रस मैंने पाया

जो सोचे कुछ चली चली तू
भाग मेरे कुछ चली चली यू
मैं न रोका तू न रूकती
तू न रोकी मैं न रुकता
ले मुस्कराहट होठो पे
तुने ज्योति जीवन भरमाया
समझ न पाया तुझेेमें मुझमें
कैसा भेद ।।

नृपेन्द्र नीर

आइना देखा बरसों बाद

 आईना देखा बरसों बाद..

सच ..

आईना देखा जैसे पहली बार..

दरवाजे बंद होने तक 

उसका अंदर न आ पाना..

बंद होते दरवाजे पर ठिठकना

चढती आंखें ..

उफ ..

चढती आंखो और सांसो से संभलना

फिर उसका मुस्कुराना ..

दमकती चेहरे से नजरें चुराना

और होले से लटों को उठाना..

मोबाइल इयरफोन को सुलझाना चोर नज़रों से देखना..

इस चितचोर को..

और दरवाजे का असहज खुलना..

उसका पास आना.. 

और पास आना..

और पास ..

 फिर इक झटके और 

उसके हथेली का मेरे बाहों से सहारा लेना ..

और इक अजीब सिरहन 

अचानक

मेरे हलक का सूख जाना ..

...

अजीब सा कुछ ..जैसे

जिंदगी को वजह करना

अदब से जिरह करना..


उसका मुझे देखना..

लेकिन मेरा न देखना (सरासर झूठ..)

मेट्रो का नियति रूकना उसका उतरना ..और दूर खो जाना..

यादों में उसका चेहरा 

और मेट्रो दरवाजे का बंद होना.. 

रह जाना ...

बाहों के संतुलन को संभाले

यादों के साथ ।।

पास बस इक आईना रह जाना ..


 नृपेंद्र .. नीर ।।।

Saturday, May 5, 2012

agar sach hai to socho..

अगर यह सच है 
तो फिर 
ईस्ट  इंडिया कंपनी में 
और इनमे 
क्या अन्तेर है 
क्या ये भी राज करेंगे 
कई दशको तक फिर से 
और समर्थन पाएँगे 
कुछ नेताओ का 
जैसे ग्वालियर, निजामो, मैसूर
 के राजाओ ने दिया था फिरंगियो का साथ .
क्या हम फिर से दशको तक गुलाम हो जाएँगे...
अगर यह सच है ...
तो क्या फिर हजारो शहीद होंगे वतन क लिए...
भगत सिंह और आज़ाद 
आएँगे आतंकवादी बनकर ..
रोटी और इज्ज़त के लिए. 
हज़ारो मरेंगे गरीबी में..
सैकड़ो का कत्लेआम होगा 
भुखमरी फैलेगी..
फिर कोई गाँधी, नेहरु आएगा.. और हम
एक बार फिर शिकार होंगे  
 आरक्षण , जात पात , लूट खसोट के  
 नहीं हम  नहीं होंगे..
होंगे लेकिन
हमारे बच्चे... आनेवाली पीढ़ी 
जो फिर गाएंगी..
गीत वतन की 
और पढ़ेंगी ...
ईस्ट इंडिया कंपनी .. यूरोप की 
सोनिया गाँधी यूरोप की 
जैसे हमने पढ़ा है ...
तैमूर लुंग और बाबर ...
मंगोल के उपज  थे।..
अगर यह सच है.. तो सोचो 
आखिर क्यू  है  महँगी 
रोटी ,कपडे और  मकान
शिक्षा , यात्रा और ज़ुकाम ..
पंचर साइकिल की चिप्पी 
मुह क पान की पिच्क्की 
अगर सच है तो सोचो  
ईस्ट इंडिया कंपनी .. यूरोप की 
सोनिया गाँधी यूरोप की 
बहने क्यू न मानी जाये 
इतिहास क पन्नो में 
और इन नेताओ को 
जो गद्दार है.. गुनाहगार है 
नज़र्खोर हैं हमारी रोटी के .
अगर यह सच है.. तो सोचो ..
अगर यह सच है.. तो सोचो ...
 

Sunday, April 29, 2012

suna hai kuch log aaye the

कई दशक पहले 
सुना है कुछ लोग आये थे 
सात समंदर पार से 
फिर यही रहे दशको तक
फिर चले गए..
अलविदा कहके.
और छोड़ गए 
अपनी औलादों की 
अय्याशियो को 
जो आज भी उन्हें जिन्दा रखती हैं 
हर पल हमारी घाव को
कुरेदने क लिए..
और उनकी औलादों 
की अय्याश नजरो को
जो आज भी  जीने नहीं देती 
हमारी खुशियों को 
झपटने को तैयार बैठी रहती हैं 
हर घडी 
हमारी  थाल में पड़ी रोटी को
आज तक 
समझ ही नहीं पाया की 
अपनी थाल की रोटी बचाऊ 
या उन्हें मार भगाने को दौडू
...............
सुना है दिल्ली के 
गोल गुम्बद के बारे में 
जो कुछ बोलती है मेरे 
थाल की रोटी के बारे में
हर साल ..
गू गू गू  करते हुए 
येह भी सुना है 
के मेरी एक थाल के 
एक रोटी की कीमत पे
वहा पूरे एक दिन का चटकारा 
भोजन मिला करता है ..
 उस गोल गुम्बद में
और 
मेरे जैसे कई एक रोटी खाने वाले 
रोज एक नज़र चाहते है उस 
अय्याश खाने की ...
सुना कुछ लोग आये थे 
दशको पहले 
वही छोड़ गए 
अपनी विरासत में 
इस अय्याश्खाने को.. 

नीर (नृपेन्द्र कुमार तिवारी )   
 
     

Sunday, January 1, 2012

aa jao ..mere pass

तुम आओं मिलो  मुझसे 
सब रंजिशों से दूर 
प्रेम की अभूतपूर्व 
अहसासों क साथ 
अपनी सहज और स्थिर 
भावना में सिमटे हुए 
२०११ से २०१२ में 
मुझसे मिलने 
हर टूटती हुई जश्न को जोड़ते हुए 
अपनेपन के अहसासों के  साथ 
मेरे पास 
२०११ की उदासियों को छोड़कर  
 आओ जाओ मेरे पास 
मन और अहसास के हर पल 
मिलाते हुए मन खड़ा 
तेरा इंतज़ार कर  हूँ 
२०१२ में 
आ जाओ मेरे पास 
जाते हुए २०११ को 
कहके आल्विदा 
२०१२ में...

Wednesday, August 11, 2010

main aanjaan nahi

मैं अनजान नहीं
इस शहर में
न ही ये शहर अनजान है
मुझसे
घूमता हूँ अकेला
खोजता
अपनी मंजिल
गम की धुंध में दिखती
मेरी मंजिल
खुबसूरत
ठीक शहर क बीचोबीच
सफ़ेद मटमैले पथ्थरो
से सजी
छोटा  कब्रिस्तान  
सही जगह
अपनी मंजिल पे
कहता तो रहा
मैं अनजान नहीं
और न ही
ये शहर अनजान है मुझसे

Friday, July 30, 2010

sabko leke chal ra hun

माँ ने कहा था
सबको समेत क चलना आसन नहीं होता
बड़े बच्चे के प्यार में छोटा है रोता
और अगर छोटे को  दुलारा तो
बड़ा कभी भी पास नहीं होता,
पापा कहते रहे
खुशिया और फुर्सत साथ नहीं रहते
दो दिन की छुट्टियों में दो हाथ  नहीं रहते
मालकिन और नोट दोनों अब दूर हो गए हैं
मेरे हैं,  पर जैसे थोड़े मजबूर हो गए हैं
दोस्ती कहती रही
पांच छह सालो में तुमने झूट भी बोला
मेरे पीछे तुमने अपना मुह खोला
करोडो के घर में रखके मुझे कंगाल कर दिया
मेरी  बात मनवा के मुझे बेहाल क्र दिया

माँ पापा दोस्ती को किनारे कर
सबको खुश करने चला गया
पहले खून फिर  दिल और फिर कलेजा निकाल  रा हूँ..
खुश हूँ की सबको संभाल  रा हूँ
गिर गिर के संभल रा हूँ
 मैं सबको लेके चल रा हूँ